डॉ. लोकेश कुमार
“अस्पृश्यता एक पाप है, मानवता पर कलंक है और कोई भी इसे उचित नहीं ठहरा सकता”, यह कथन उन वीर विनायक दामोदर सावरकर का है, जिनका समूचा जीवन देश, धर्म और समाज की सेवा में समर्पित रहा। वे एक क्रांतिकारी स्वतंत्रता सेनानी, विचारक, समाज सुधारक, प्रखर वक्ता और हिन्दुत्व दर्शन के सूत्रधार थे।
वे पहले भारतीय थे जिन्होंने ब्रिटेन की राजधानी लंदन में रहते हुए ही अंग्रेजों के विरुद्ध क्रांतिकारी आंदोलन संगठित किया। वर्ष 1907 में उन्होंने 1857 की क्रांति को प्रथम स्वतंत्रता संग्राम बताते हुए लगभग 1000 पृष्ठों की पुस्तक ‘द हिस्ट्री ऑफ द वॉर ऑफ इंडिपेंडेंस’ लिखी, जिसे ब्रिटिश सरकार ने जब्त कर लिया।
जन्म और प्रारंभिक जीवन
सावरकर का जन्म 28 मई 1883 को महाराष्ट्र के नासिक जिले के भगूर गाँव में हुआ। बड़े भाई गणेश सावरकर के साथ उन्होंने 1904 में ‘अभिनव भारत’ संस्था की स्थापना की। वे लोकमान्य तिलक से बेहद प्रभावित थे और उन्हीं के सहयोग से सावरकर को 1906 में लंदन जाकर कानून की पढ़ाई के लिए शिवाजी स्कॉलरशिप मिली।
क्रांति का संकल्प और संघर्ष
1905 में बंगाल विभाजन के विरोध में उन्होंने विदेशी वस्त्रों की होली जलाकर स्वदेशी आंदोलन की अलख जगाई। लंदन स्थित इंडिया हाउस को उन्होंने क्रांतिकारी गतिविधियों का केंद्र बना दिया। इसी काल में वे मदनलाल धींगरा, लक्ष्मण कन्हरे जैसे युवाओं के प्रेरणास्रोत बने।
ब्रिटिश सरकार ने 13 मार्च 1910 को उन्हें लंदन से गिरफ्तार कर लिया। उन पर देशद्रोह, हथियारों की तस्करी और राष्ट्रविरोधी साहित्य प्रसारित करने के आरोप लगे। गिरफ्तारी के दौरान उन्होंने समुद्र से भागने की कोशिश भी की, लेकिन पकड़े गए।
कालापानी की अमर गाथा
7 अप्रैल 1911 को सावरकर को दो-दो आजीवन कारावास की सजा हुई और उन्हें अंडमान की कुख्यात सेलुलर जेल (कालापानी) भेजा गया। वहां उन्हें कागज और कलम तक नहीं दिया गया। पर उन्होंने हार नहीं मानी। उन्होंने जेल की सफेद दीवारों को ही अपनी किताबें बना लिया। लोहे की कील और सन के कांटे से उन्होंने हिंदुत्व दर्शन, कमला महाकाव्य, अर्थशास्त्र और अन्य विषयों पर लेख लिखे।
हर महीने कैदियों के कमरे बदले जाते थे, लेकिन सावरकर का लक्ष्य था कि उनके विचार हर कैदी तक पहुंचे। वे सारे लेख उन्हें कंठस्थ हो चुके थे। यह उनकी स्मरण शक्ति और विचारशक्ति का अद्भुत उदाहरण है।
हिन्दुत्व और सामाजिक सुधार
1922 में जेल में रहते हुए उन्होंने ‘Essentials of Hindutva’ नामक पुस्तक लिखी, जो आज आधुनिक हिन्दुत्व की आधारशिला मानी जाती है। 1924 में रिहाई के बाद उन्होंने अस्पृश्यता उन्मूलन, महिला कल्याण और समाजिक समरसता के कार्यों में जीवन अर्पित कर दिया। रत्नागिरी में पतित पावन मंदिर का निर्माण कर सभी जातियों के लोगों के प्रवेश की व्यवस्था की।
1931 में अपने निबंध ‘हिन्दू समाज की सात बेड़ियां’ में उन्होंने जातिवाद, कर्मकांड और अंधविश्वास पर कठोर प्रहार किया। उनका मानना था कि हिन्दू कोई जाति नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और राष्ट्रीय पहचान है।
उपेक्षा और पुनर्मूल्यांकन
दुख की बात है कि स्वतंत्रता संग्राम में उनके अतुलनीय योगदान के बावजूद उनके देहांत (1966) पर न तो केंद्र सरकार और न ही महाराष्ट्र सरकार ने शोक दिवस घोषित किया। लेकिन अब उनकी विरासत को पुनः समझने और सम्मान देने की दिशा में कार्य हो रहे हैं।